आस
ग़म इस बात का नहीं,
की वो पास नहीं है।
तबियत फिर संभल जाती जो होता कोई बहाना,
पर कश्मकश ये है की अब कोई आस नहीं है।
दूर होना भी कोई गम था,
की अब वक़्त ने किया बया।
वो जो दूर होक भी करीब थे,
अब उनका कोई इकरार या इंकार नही है।
तबियत फिर संभल जाती जो होता कोई बहाना,
पर कश्मकश ये है की अब कोई आस नहीं है।
की जो रहते थे ख्यालो में,
और मुख़्तसर गुफ्तगू किया करते थे।
इस कदर बदलते गए हालात,
की अब उनको मेरा इल्म-ए-हाल नहीं है।
तबियत फिर संभल जाती जो होता कोई बहाना,
पर कश्मकश ये है की अब कोई आस नहीं है।
मेरा तस्सवुर अब भी ढूंढ़ता है,
की कोई हल्का सा एहसास तो मिले उनका।
पर ना जाने किस बात पर नाराज़ है वो,
की अब उनके ज़ेहन में मेरा नामो निशाँ नहीं है।
तबियत फिर संभल जाती जो होता कोई बहाना
पर कश्मकश ये है की अब कोई आस नहीं है।
कहते है की वक़्त भर देता है हर ज़ख्म,
कितनो ने नई राहे पकड़ी भूल जाने के बाद।
पर जो लिया मैंने जायज़ा दर्द का अपने,
तो पाया की मेरे ज़ख्मो का वक़्त से इकरार नहीं है।
तबियत फिर संभल जाती जो होता कोई बहाना
पर कश्मकश ये है की अब कोई आस नहीं है।
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